भगत सिंह (जन्म: सितम्बर १९०७) मृत्यु: २३ मार्च १९३१ )
भारत के एक प्रमुख जाट स्वतंत्रता सेनानी
थे। भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश
सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़े आदर्श है।
इन्होंने केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम फेंककर भी भागने से
मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च १९३१ को इनके दो अन्य
साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश ने
उनके बलिदान को बड़ी गम्भीरता से याद किया। पहले लाहौर में साण्डर्स-वध और
उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के
अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले
विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की। इन सभी बम धमाको के लिए उन्होंने वीर सावरकर
के क्रांतिदल अभिनव भारत की भी सहायता ली और इसी दल से बम बनाने के गुर
सीखे।
जन्म और परिवेश
भगत सिंह का जन्म २७ सितंबर १९०७ को हुआ
था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह
एक सिख परिवार था | अमृतसर में १३ अप्रैल १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग
हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल
कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत
सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित ४
क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने
अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा,
त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु
के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे
अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में
क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी
साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली स्थित
ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में ८
अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम
फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
एसेम्बली में बम फेंकना
भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं
थे । यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। इसी कारण से उन्हें
पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। भगत सिंह
चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी ‘आवाज़’ भी
पहुँचे। जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। जेल में भगत सिंह व उनके
साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो
भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे।
23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो
साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे
लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे| फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे
–मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया।
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