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वैदिक सभ्यता, वैदिक काल , उत्तर वैदिक काल , Vedic Period

वैदिक सभ्यता, वैदिक काल , उत्तर वैदिक काल , Vedic Period


वैदिक सभ्यता प्राचीन भारत की सभ्यता है जिसमें वेदों की रचना हुई। भारतीय विद्वान् तो इस सभ्यताको अनादि परम्परा आया हुवा मानते हैं | कुछ लोग तो भारत में आज से लगभग ७००० इस्वी ईसा पूर्व शुरु हई थी ऐसा मानते है, परन्तु पश्चिमी विद्वानो के अनुसार आर्यों का एक समुदाय भारत मे लगभग २००० इस्वी ईसा पूर्व आया और उनके आगमन के साथ ही यह सभ्यता आरंभ हुई थी। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल २००० इस्वी ईसा पूर्व से ६०० इस्वी ईसा पूर्व के बीच मे मानते है, परन्तु नए पुरातत्त्व उत्खननो से मिले अवशेषों मे वैदिक सभ्यता के कई अवशेष मिले हैं जिससे आधुनिक विद्वान जैसे डेविड फ्राले, तेलगिरी, बी बी लाल, एस र राव, सुभाष काक, अरविन्दो यह मानने लगे है कि वैदिक सभ्यता भारत मे ही शुरु हुई थी और ऋग्वेद का रचना काल ४०००-३००० इस्वी ईसा पूर्व रहा होगा, क्योकि आर्यो के भारत मे आने का न तो कोई पुरातत्त्व उत्खननो से प्रमाण मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानो से कोई प्रमाण मिला है इस काल में वर्तमान हिंदू धर्म के स्वरूप की नींव पड़ी थी जो आज भी अस्तित्व में है। वेदों के अतिरिक्त संस्कृत के अन्य कई ग्रंथो की रचना भी इसी काल में हुई थी। वेदांगसूत्रौंकी रचना मन्त्र ब्राह्मणग्रंथ और उपनिषद इन वैदिकग्रन्थौंको व्यवस्थित करनेमे हुआ है | अनन्तर रामायण, महाभारत,और पुराणौंकी रचना हुआ जो इस काल के ज्ञानप्रदायी स्रोत मानागया हैं। अनन्तर चार्वाक , तान्त्रिकौं ,बौद्ध और जैन धर्म का उदय भी हुआ |इतिहासकारों का मानना है कि आर्य मुख्यतः उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों रहते थे इस कारण आर्य सभ्यता का केन्द्र मुख्यतः उत्तरी भारत था। इस काल में उत्तरी भारत (आधुनिक पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा नेपाल समेत) कई महाजनपदों में बंटा था।इस काल की तिथि निर्धारण जितनी विवादास्पद रही है उतनी ही इस काल के लोगों के बारे में सटीक जानकारी। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि इस समय तक केवल इसी ग्रंथ (ऋग्वेद) की रचना हुई थी। मैक्स मूलर के अनुसार आर्य का मूल निवास मध्य ऐशिया है। बोगाज-कोई (एशिया माईनर) में पाए गए 1400 ईसा पूर्व के अभिलेख में हिंदू देवताओं इंद, मित्रावरुण, नासत्य इत्यादि को देखते हुए इसका काल और पीछे माना जा सकता है।
बाल गंगाधर तिलक ने ज्योतिषीय गणना करके इसका काल 6000 ई.पू. माना था।प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल थी। एक कुल में एक घर में एक छत के नीचे रहने वाले लोग शामिल थे। एक ग्राम कई कुलों से मिलकर बना होता था। ग्रामों का संगठन विश् कहलाता था और विशों का संगठन जन। कई जन मिलकर राष्ट्र बनाते थे।राष्ट्र (राज्य) का शासक राजन् (राजा) कहलाता था। जो राजा बड़े होते थे उन्हें सम्राट कहते थे।

उत्तरवैदिक काल (१०००-६०० ई०पू०)

ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिंधु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था। बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। गंगा को आज भारत की (या बोले तो हिदुओं की) सबसे पवित्र नदी माना जाता है। इस काल में विश् का विस्तार होता गया और कई जन विलुप्त हो गए। भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन् राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हो गया था, जैसे – काशी, कोसल, विदेह, मगध और अंग।
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। ग॓गा और यमुना नदी का उल्लेख केवल एक बार हुआ है

वैदिक साहित्य

वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है।
 वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
 ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है।

ऋग्वेद

ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 सूक्त हैं। इसकी भाषा पद्यात्मक है। ऋग्वेद में 33 देवो (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है।  प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। ‘ असतो मा सद्गमय ‘ वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।  ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि  इसके पुरोहित क नाम होत्री है।

यजुर्वेद

यजु का अर्थ होता है यज्ञ। यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है। इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता।यह 40 अध्याय में विभाजित है।इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है।

सामवेद

सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं।सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।

अथर्ववेद

इसमें प्राक्-ऐतिहासिक युग की मूलभूत मान्यताओं, परम्पराओं का चित्रण है। अथर्ववेद 20 अध्यायों में संगठित है। इसमें 731 सूक्त एवं 6000 के लगभग मंत्र हैं।इसमें रोग तथा उसके निवारण के साधन के रूप में जानकारी दी गयी है।अथर्ववेद की दो शाखाएं हैं- शौनक और पिप्लाद।इसे अनार्यों की कृति माना जाता है।

ब्राह्मण

वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओंको ब्रह्म कहा गया है | वही ब्रह्मका विस्तारितरुपको ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्यने मन्त्रसहितब्राह्मणग्रंथों की उपदेश आदित्यसे प्राप्त कीया है |संहिताओं के अन्तर्गत कर्मकांड की जो विधि उपदिष्ट है ब्रह्मणमे उसीकी सप्रमाण व्याख्या देखनेको मिलता है |प्राचीन परम्परामे आश्रमानुरुप वेदोका पाठ करनेकी विधि थी | अतः ब्रह्मचारिलोग मन्त्रौंका ही पाठ करते थे ,गृहस्थ ब्राह्मणौंका, वानप्रस्थ आरण्यौंका और सन्न्यास उपनिषदौंका | गार्हस्थ्यधर्मका मननीय वेदभाग ही ब्राह्मण है |यह मुख्यतः गद्य शैली में उपदिष्ट है।ब्राह्मण ग्रंथों से हमें बिम्बिसार के पूर्व की घटना का ज्ञान प्राप्त होता है।ऐतरेय ब्राह्मण में आठ मंडल हैं और पाँच अध्याय हैं। इसे पञ्जिका भी कहा जाता है।ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम प्राप्त होते हैं|तैतरीय ब्राह्मण कृष्णयजुर्वेदका ब्राह्मण है |शतपथ_ब्राह्मण में १०० अध्याय,१४ काण्ड और ४३८ ब्राह्मण है |गान्धार, शल्य, कैकय, कुरु, पांचाल, कोसल, विदेह आदि स्थलौंका भी उल्लेख होता है।शतपथ ब्राह्मण ऐतिहासिक दृष्टी से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ब्राह्मण है।
पञ्चविंश/ षड्विंश ब्राह्मण सामवेद सम्बद्ध ब्राह्मण है |सर्वाधिक परवर्ती ब्राह्मण गोपथ है।

आरण्यक

आरण्यक वेदौंकी वह भाग है जो गृहस्थाश्रम त्याग उपरान्त वानप्रस्थि लोग जंगल में पाठ कीया करते थे | इसी कारण आरण्यक नामाकरण की गई थी।इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहस्यवाद, प्रतीकवाद, यज्ञ और पुरोहित दर्शन है।वर्तमान में सात अरण्यक उपलब्ध हैं।सामवेद और अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है।

उपनिषद

उपनिषद प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है। उपनिषदों में ‘वृहदारण्यक’ तथा ‘छान्दोन्य’, सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थों से बिम्बिसार के पूर्व के भारत की अवस्था जानी जा सकती है। परीक्षित, उनके पुत्र जनमेजय तथा पश्चातकालीन राजाओं का उल्लेख इन्हीं उपनिषदों में किया गया है। इन्हीं उपनिषदों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के अन्य सभ्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। आर्यों के आध्यात्मिक विकास, प्राचीनतम धार्मिक अवस्था और चिन्तन के जीते-जागते जीवन्त उदाहरण इन्हीं उपनिषदों में मिलते हैं। उपनिषदों की रचना संभवतः बुद्ध के काल में हुई, क्योंकि भौतिक इच्छाओं पर सर्वप्रथम आध्यात्मिक उन्नति की महत्ता स्थापित करने का प्रयास बौद्ध और जैन धर्मों के विकास की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ ।कुल उपनिषदों की संख्या 108 है।
मुख्य रूप से शास्वत आत्मा, ब्रह्म, आत्मा-परमात्मा के बीच सम्बन्ध तथा विश्व की उत्पत्ति से सम्बंधित रहस्यवादी सिधान्तों का विवरणदिया गया है।“सत्यमेव जयते” मुण्डकोपनिषद से लिया गया है। मैत्रायणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति और चार्तुआश्रम सिद्धांत का उल्लेख है।

वेदांग

युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं (शाखाओं) का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है। वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्यों की कृति मानी जाती है। वेदांग सूत्र के रूप में हैं इसमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है।वेदांग की संख्या 6 है शिक्षा- स्वर ज्ञान,कल्प- धार्मिक रीति एवं पद्धति,निरुक्त- शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र,व्याकरण- व्याकरण,छंद- छंद शास्त्र,ज्योतिष- खगोल विज्ञान
सूत्र साहित्य
सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग है। उसे समझने में सहायक भी है।
कल्प सूत्र- ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण। वेदों का हस्त स्थानीय वेदांग।
श्रोत सूत्र- महायज्ञ से सम्बंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या। वेदांग कल्पसूत्र का पहला भाग।
स्मार्तसूत्र – षोडश संस्कारों का विधान करने वाला कल्प का दुसरा भाग
शुल्बसूत्र- यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से सम्बंधित नियम इसमें हैं। इसमें भारतीय ज्यामिति का प्रारम्भिक रूप दिखाई देता है। कल्प का तीसरा भाग।
धर्म सूत्र- इसमें सामाजिक धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है। कल्प का चौथा भाग
गृह्यसूत्र- परुवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बंधित विधि-विधानों की चर्चा है।
स्रोत : विकिपीडिया एवं अन्य स्रोत

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